RAJASTHAN KSHTRIYA PANWAR MAHASABHA SANSTHARegistration No.COOP/2019/AJMER/101846 |
भविष्य पुराण प्रशस्ति सर्ग पर्व खण्ड 1 अ 6 मे लिखा है :-- बिन्दुसार के पुत्र अशोक के काल मे आबू पर्वत पर कान्यकुब्ज ब्राह्मणों ने ब्रह्महोम किया और वेद मंत्रों के प्रभाव से चार क्षत्रिय उत्पन्न किये।
सामवेद से प्रमर(परमार) यजुर्वेद से चपहानि (चौहान) 47 वें श्लोक का अर्थ स्पष्ट नहीं है परंतु परिहारक से अर्थ प्रतिहार और चू से चालुक्य होना चाहिए क्योंकि परमार चौहान चालुक्य और प्रतिहारों को पृथ्वीराज रासो आदि में अग्नि वंशी अंकित किया गया है और परम्परा मे भी यही माना जाता है। आबू पर हुए यज्ञ को सही परिस्थितियों में समझने पर यह निष्कर्ष निकलता है कि वैदिक धर्म के उत्थान के लिए उसके प्रचार-प्रसार हेतु किसी वशिष्ठ नामक ब्राह्मण ने यज्ञ करवाया। चार क्षत्रियों ने उस यज्ञ को संपन्न करवाया। उनका नवीन यज्ञ नाम परमार चौहान चालुक्य और प्रतिहार हुआ। यह चारों *अग्निवंशी* कहलाए।
जबकि मूलतः चौहान और प्रतिहार सूर्यवंशी हैं तथा चालुक्य और परमार चंद्रवंशी क्षत्रिय है। *अग्नि वंश*
विन्दुसारस्ततो भवतु।
पितुस्तुल्यं कृत राज्यमशोकस्तनमो भवत्।।44।।
एतस्मिन्नेत कालेतुकन्यकुब्जोद्विजोत्तमः।
अर्बुदं शिखरं प्राप्यब्रह्महोममथोकरोत।।45।।
वेदमंत्र प्रभाववाच्चजाताश्चत्वारि क्षत्रियः।
प्रमरस्सामवेदी च चपहानिर्यजुर्विदः।।46।।
त्रिवेदी चू तथा शुक्लोथर्वा स परिहारकः।
ऐरावत कुले जातान्गजानारुहयते प्रथक।।47।।
*भावार्थ* :--
भविष्य पुराण के इन श्लोकों से कुछ महत्वपूर्ण बातें सामने आती है :--
(1) आबू पर्वत पर किए गए इस यज्ञ का समय सम्राट अशोक के पुत्रों का काल (232 से 215 ईसा पूर्व) था।
(2) यह यज्ञ वशिष्ठ और विश्वामित्र की शत्रुता के फलस्वरुप नहीं हुआ बल्कि वेद आदि धर्म के प्रचार प्रसार के लिए हुआ।
(3) ये चार पुरुष आहुति से उत्पन्न नहीं हुए बल्कि ब्रह्महोम (यज्ञ) जिन चार क्षत्रियों के नेतृत्व में हुआ उनके वेद मंत्रों के उच्चारण से प्रमर(परमार) चमहानि (चौहान) चू (चालुक्य) परिहारक (परिहार) नये नाम (यज्ञ नाम) दिए गए।
(4) इन चारों के वंशज अपने आदि पुरुष के नाम से परमार के वंशज परमार चौहान के वंशज चौहान चालुक्य वंश चालुक्य और प्रतिहार के वंशज प्रतिहार क्षत्रिय कहलाए।
(5) 11वीं शताब्दी के साहित्य शिलालेख आदि में वशिष्ठ विश्वामित्र संबंधी गाय की घटना व प्राचीन यज्ञ की घटनाओं को भ्रमवश अंकित किया गया था। *निष्कर्ष* :--
अशोक के पुत्रों के काल मे ईसा पूर्व 232 से 215 मे आबूपर्वत पर ब्रह्महोम (यज्ञ) हुआ। इस यज्ञ में कोई चंद्रवंशी क्षत्रिय शामिल हुआ। ॠषियों ने सामवेद मंत्र से उसका नाम प्रमार(परमार) रखा व इसके वंशज *परमार* क्षत्रिय कहलाए। अतः शकों पर विजय के पश्चात विक्रमादित्य ने विद्वानों की राय से *कृत संवत्* आरंभ किया जो नवी शताब्दी में *विक्रम संवत* कहलाया।
विक्रमादित्य के बाद देवभट्ट शालीवाहन शालीहोम शालीवर्धन सुविहोम इंद्रपाल माल्यवान शंभूदत्त भोमराज वत्सराज भोजराज शंभूदत्त बिंदुपाल राजपाल महीनर शकहंता शुत्रोह सोमवर्मा कानर्वा रंगपाल कल्वसी व गंगासी मालवा के शासक हुए। इसके बाद पांचवी शताब्दी में हुणों ने मालवा से परमारों का राज्य समाप्त कर दिया। पश्चिमी राजस्थान आबू बाड़मेर लोद्रवा पूंगल आदि पर भी परमारों का राज्य था। यह राज्य उन्होंने नागवंश से छीना था। इनमें धरणीवराह प्रसिद्ध राजा हुआ। उसने अपने राज्य को अपने सहित नौ भागों में बांटकर अपने भाईयों को भी दे दिया। जिससे *नौ कोटी मारवाड़* कहलाया :-- नवी शताब्दी में वराह परमारों से देवराज भाटी ने लोद्रवा ले लिया। सातवीं शताब्दी में ब्राह्मण हरिश्चंद्र परिहार के पुत्रों ने मंडोर ले लिया। सोजत का क्षेत्र हूलों छीन लिया। इस प्रकार राजस्थान का परमारों का यह राज्य निर्बल हो गया।
आबू क्षैत्र में परमारों का पुनरुत्थान 11वीं शताब्दी में हुआ जिसमें सर्वप्रथम सिंधुराज परमार का नाम मिलता है। 17 *परमार(पँवार) वंश*
भविष्य पुराण के अनुसार यह परमार अवंतिका का शासक हुआ। इसके बाद महमद देवादि देवदूत व गंधर्वसेन हुए। इस गंधर्वसेन का पुत्र *विक्रमादित्य* था। यह राजा जनमानस में बहुत प्रसिद्ध रहा। विक्रमादित्य ने शकों को पराजित कर भारतीय जनता पर बड़ा उपकार किया। विक्रमादित्य का दरबार विद्वानों का दरबार था विद्वानों की राय मे इस समय पुनः कृतयुग का समय आ रहा था।
(1) मण्डोर -- सावंत
(2) सांभर -- सिंध
(3) पुंगल -- गजमल
(4) लोद्रवा -- भाण
(5) धरधार(अमरकोट क्षेत्र) -- जोगराज
(6) पारकर(पाकिस्तान मे) -- हासु
(7) आबू -- आल्ह व पल्ह
(8) जालंधर (जालौर) -- भोजराज
(9) किराडू(बाड़मेर) -- स्वयं धरणीवराह
मालवा के परमार शासकों में पहला नाम कृष्णराज (उपेन्द्र) का मिलता है। इसने राजा का सम्मान प्राप्त किया वह कई यज्ञ किए। इसके बाद बेरसी प्रथम सियक प्रथम व बेरसी द्वितीय हुआ। यह राष्ट्रकूट का सामंत था। इसके बाद सियक द्वितीय ने राष्ट्रकूट खोटिंग को हराया व स्वतंत्र शासक बना। सियक द्वितीय के दो पुत्र मुंज व सिंधुराज थे। वाक्पति (मुंज) उत्पल विक्रम संवत् 1030 में राजा बना। *मुंज* ने चेदि नरेश युवराज कलचुरी को हराकर त्रिपुरी का पर अधिकार किया। किराडू प्रदेश बलिराज से जीतकर अपने पुत्र अरण्यराज को आबू दिया। जालौर अपने पुत्र चंदन को व भीनमाल अपने भतीजे दूसाल को दिया। चालुक्य तेलप ने मुंज को गिरफ्तार कर उसकी हत्या करवा दी।
मुंज के बाद उसका भाई *सिंधुराज* गद्दी पर बैठा। इसने दक्षिण कौशल वागड़ व नागों का राज्य बैरागढ़ जीता। नागों ने अपनी पुत्री शशिप्रभा का विवाह सिंधुराज से किया। यह गुजरात के चामुंडराज सोलंकी के साथ युद्ध में मारा गया।
सिंधूराज के बाद उसका पुत्र *भोज* गद्दी पर बैठा। यह मालवा के परमारों में सबसे अधिक ख्याति प्राप्त शासक हुआ। मलयपर्वत से दक्षिण तक इसका विस्तृत राज्य था। इसने इंद्रराज तोग्गल भीम आदि को पराजित किया तथा कर्णाट गुर्जर और तुर्कों को जीता। गांगेय कलचूरी को जीतकर मुंज की मृत्यु का बदला लिया। राजा भोज स्वयं विद्या रसिक एवं विद्वान था उसने *सरस्वती कण्ठाभरण* *राज्यमृगांक* *श्रृंगारमंजरी कला* आदि ग्रंथ लिखे तथा उसके दरबारी विद्वानों ने भी *भोजप्रबंध* *चिंतामणि* आदि ग्रंथ लिखे। इसने *चित्तौड़* में त्रिभुवन नारायण का विशाल शिव मंदिर *भोपाल* की विशाल झील भोपाल ताल आदि का निर्माण करवाया।
भोज का उत्तराधिकारी जयसिंह हुआ। इसने चालूक्यों को हराया। इसके उत्तराधिकारी उदादित्य ने ग्वालियर के पास उदयपुर बसाया। उदादित्य के तीन पुत्र लक्ष्मीदेव नरवर्मा व जगदेव थे। जगदेव जनमानस में जगदेव पंवार के नाम से प्रसिद्ध है। उदादित्य के बाद लक्ष्मीदेव गद्दी पर बैठे व लक्ष्मीदेव का उत्तराधिकारी उसका भाई नरवर्मा हुआ। नरवर्मा के बाद क्रमशः यशोवर्मा जयवर्मा अजयवर्मा विंध्यवर्मा सुभट्टवर्मा अर्जुनवर्मा देवपाल आदि राजा हुए।
वि सं 1348 में फिरोज शाह खिलजी ने उज्जैन के मंदिरों को तोड़ा व मालवा का पूर्वी हिस्सा छीन लिया। फिर मोहम्मद तुगलक के समय मालवा का परमार राज्य समाप्त कर दिया गया। मेवाड़ का डूंगरपुर बांसवाड़ा क्षेत्र वागड़ कहलाता है। 10 वीं सदी के उत्तरार्ध में मालवा के परमार राजा वाक्पति के बड़े पुत्र बेरसी द्वितीय तो मालवा के राजा बने व छोटे पुत्र *डम्बरसिंह* को वागड़ की जागीर मिली। वागड़ में *अर्थूणा* इन की राजधानी थी। डंबरसिंह के पुत्र धनिक ने उज्जैन में धनिकेश्वर शिवमंदिर बनवाया। धनिक के बाद उसका भतीजा चच्च वागड़ का शासक हुआ। चच्च के बाद डम्बरसिंह का पौत्र कंकदेव राजा हुआ। यह मालवा के राजा सियक द्वितीय (वि सं 1000 से 1030) का समकालीन था। यह सियक द्वितीय के पक्ष में राष्ट्रकूट खोटिंग की सेना से युद्ध करते हुए काम आया। कंकदेव के बाद क्रमशः चण्डप सत्यराज लिबराज मंडलिक व चामुण्डराज गद्दी पर बैठे। इसने वि सं 1136 में अर्थूणा (बांसवाड़ा) में शिवमंदिर बनवाया। इसके पुत्र विजयसिंह का शासन काल वि सं 1165 से 1190 तक का रहा। मेवाड़ के शासक सामंतसिंह ने वि सं 1236 के लगभग वागड़ का राज्य छीन लिया। वागड़ के परमारों के वंशज आजादी के पूर्व तक सौर्थ महीकांठा गुजरात के राजा थे। मालवा के शासक वाकपति (मुंज) उत्पल ने वि सं 1040 में आबू जीतकर अपने छोटे भाई सिंधुराज को यहां का प्रशासक बनाया। फिर मुंज ने अपने पुत्र अरण्यराज को आबू चंदन को जालोर व अपने भतीजे दुशाल को भीनमाल का राज्य दिया। अरण्यराज के बाद कृष्णराज महिपाल धुन्धक आबू के शासक हुए। धुन्धक पर गुजरात के भीमदेव सोलंकी ने आक्रमण किया। भीमदेव के दण्डपति विमलशाह महाजन ने संधि करवाई तथा धुन्धक की आज्ञा से विमलशाह ने आबू पर देलवाड़ा गांव में वि सं 1088 में करोड़ों रुपयों की लागत से भव्य मंदिर बनवाया। धुन्धक की पुत्री लाहिनी ने अपने पति विग्रहराज के मरने पर वशिष्ठपुर बसंतगढ़ में वि सं 1099 में बावड़ी बनवाई। धुन्धक का वंशज धारावर्ष बहुत ही वीर व्यक्ति था। यह एक बाण से तीन भैसें बेध देता था। धारावर्ष के छोटे भाई प्रहलादन ने प्रहलादनपुर बसाया जो आज का पालनपुर गुजरात है। धरावर्ष के बाद सोमसिंह कृष्णराज व प्रतापसिंह आबू के शासक हुए। प्रतापसिंह ने चंद्रावती नगरी का उद्धार किया। इसके पुत्र विक्रमसिंह के समय वि सं 1368 में आबू का राज्य परमारों से चौहानों ने छीन लिया। मालवा के परमार राजा वाक्पति (मुंज) उत्पल (वि सं 1030 से 1050) के पुत्र चंदन को जालौर की जागीर मिली। चंदनराज के बाद क्रमशः देवराज अपराजित विज्जल धारावर्ष व विसल जालौर के शासक हुए। इसके बाद जालौर के परमार शासकों की कोई जानकारी नहीं मिलती है। आबू के परपार राजा कृष्णराज प्रथम के बड़े पुत्र महिपाल तो आबू के राजा हुए व छोटे पुत्र धरणीवराह भीनमाल के शासक हुए। धन्धुक के बाद कृष्णराज द्वितीय व सोच्छराज हुए। सोच्छराज का शासन किराडू तक फैल चुका था। इस सोच्छराज के बाद उदयराज और सोमेश्वर किराडू के शासक हुए। *परमारों के प्राचीन राज्य*
(1) *मालवा राज्य* :--
(2) *वागड़(मेवाड़) राज्य* :--
(3) *आबू(राजस्थान) राज्य* :-
(4) *जालौर राजवंश* :--
(5) *किराडू राजवंश* :--
17 परमार (पँवार) पृष्ठ क्र 58 मालवा के राजाभोज ( वि सं 1066 से 1099) के पुत्र जयसिंह व पौत्र उदादित्य हुए। उदादित्य के पुत्र लक्ष्मीदेव नरवर्मा जगदेव रिणधवल व महीधवल हुए। जगदेव की मृत्यु हुई वि सं 1195 में हुई। इन्हीं जगदेव परमार के वंशज बारड़ शाखा के परमार दांता के परमार है। जगदेव के पुत्र या प्रपौत्र केसरीसिंह जी दांता के परमारों के आदि पुरुष हैं। केसरीसिंह जी के वंशज जयमल ने दांता पर अधिकार किया। जयमल के बड़े पुत्र जयसिंह को माकड़ी गांव की जागीर मिली व छोटे पुत्र पूंजाजी को दांता का राज्य मिला। पूंजाजी के तीन पुत्र मानसिंह अमरसिंह व धींगाजी हुए। अमरसिंह को सुदासणा व धींगाजी को गणछेरन की जागीर मिली। पूंजाजी के उत्तराधिकारी मानसिंह जी का समय वि सं 1739 का है। मानसिंह जी के बाद क्रमशः गजसिंह पृथ्वीसिंह वीरमदेव कर्णसिंह रतनसिंह अभयसिंह मानसिंह जगतसिंह नाहरसिंह जालिमसिंह हरिसिंह जसवंतसिंह हमीरसिंह भवानीसिंह व पृथ्वीसिंह दांता के शासक रहे। मालवा पर मुसलमानों का अधिकार हो जाने पर राजाभोज के वंशज सांगण ने अजमेर क्षेत्र में अधिकार किया। इस सांगन के नाम से पीसांगन बसाया। सांगन के पुत्र हमीरदेव का वि सं 1532 का शिलालेख है। हमीर के बाद हरपाल व महिपाल हुए। महिपाल (महपा) के वंशज महपा पवाँर कहलाए। महपा महाराणा कुंभा की सेवा में रहा। महपा का पुत्र रघुनाथ व पौत्र करमचंद हुआ। राणा सांगा अपने आपत्तिकाल में करमचंद के पास रहे थे। करमचंद की रानी रामादेवी ने रामासर तालाब वि सं 1580 में बनवाया।
करमचंद के बाद क्रमशः जगमाल मेहाजल व पंचायण हुए। पंचायण वि सं 1589 में चित्तौड़ की रक्षार्थ काम आया। पंचायण के पुत्र मालदेव को राणा उदयसिंह जी ने जहाजपुर की जागीर दी। मालदेव के पुत्र शार्दुल की राजधानी मसूदा थी। इसने अजमेर के निकट श्रीनगर बसाया। शार्दुल परमार के वंशज सुल्तानसिंह के पुत्र जैतसिंह को महाराजा जोरावरसिंह जी ने बीकानेर क्षेत्र में जागीर दी। जैतसिंह ने जैतसीसर गांव बसाया। जो सरदारशहर तहसील में है। राजासर सोनपालसर नाहरसरा लूणासर राणासर जेतासर आदि ठिकानों का निकास जैतसीसर से है। मालवा पर मुसलमानों का अधिकार हो जाने के बाद कुछ परमार आगरा के पास जगनेर में रहे यहां से अशोक परमार राणा सांगा की सेवा में आया। मेवाड़ मे प्रथम श्रेणी के ठिकाने बिजोलिया मे अशोक परमार के वंशज है। अशोक के छोटे भाई शंभूसिंह ने अहमदनगर व पुणे के पास राज्य स्थापित किया। शंभूसिंह के पुत्र कृष्णाजी शिवाजी के पास चले गए व कई युद्धों में बहादुरी का परिचय दिया। कृष्णाजी के तीन पुत्रों बुआजी रामाजी व कैरोजी ने राजाराम के साथ मराठा साम्राज्य के विस्तार में योगदान दिया। इससे बुआजी के पुत्र कालोजी को *देवास* व संभाजी को *धार* का राज्य मिला। सन् 1818 की संधि के बाद देवास व धार राज्य अंग्रेजों के अधीन हुए। *धार व देवास राज्य* पर देश की स्वतंत्रता तक परमार शासन करते रहे। मालवा से कलसाह परमार कुमायूं गए। कलसाह के वंशजों ने टेहरीगढ़वाल व पोरीगढ़वाल में राज्य स्थापित किए। मालवा से कई परमार तीर्थ यात्रा पर गए। वापस आते समय शाहबाद जिले के क्षेत्र पर अधिकार कर लिया। इनके वंशज नारायणमल्ल को शाहजहां ने भोजपुर के पास जागीर दी। बँटवारा होने पर एक भाई जगदीशपुर व दूसरे भाई को मैठीगढ़ मिला।
बांदा जिला के आरा में डूमराव भी इनका राज्य था। जगदीशपुर के कुंवरसिंह ने अंग्रेजों के विरुद्ध आजादी की लड़ाई में भाग लिया वह अपना प्राणोत्सर्ग किया। आबू के शासक धरणीवराह जिनका समय पांचवी छठी शताब्दी माना जाता है। धरणीवराह के वंशज तीन भाई झेलरसी उमरसी व सुमेरसी हुए। इनका समय नौ वीं शताब्दी का उत्तरार्ध था। उमरसी व सुमरसी ने सिंध जाकर नया राज्य स्थापित किया। उमरसी ने उमरकोट का किला बनवाया व समरसी को उमरकोट का राज्य दिया। उमरसी ने आबू के पास दट के किले पर अधिकार किया। दट से उमरसी के वंशज उज्जैन धार होते हुए आगे बढ़े व राजगढ़ व नरसिंहगढ़ राज्य स्थापित किए। उमरसी के वंशज *उमठ* परमार कहलाते हैं। राणा उमरसी के बाद दतारजी पालजी भीमजी व रावत सारंगसेन हुए। सारंगसेन ने मध्यप्रदेश मे राजगढ़ व नरसिंहगढ़ राज्य स्थापित किए। आगे चलकर ये दोनों राज्य अलग हुए। देश की स्वतंत्रता के समय राजगढ़ के शासक विक्रमादित्य सिंह जी व नरसिंहगढ़ के शासक भानुप्रताप सिंह जी थे। कुमार सोनेशाह परमार पन्ना के राजा हिंदूपत के यहां रहते थे। सोनेशाह को पुत्र प्रताप सिंह को अंग्रेजों ने सन् 1806 में छतरपुर का राज्य दिया व सन् 1827 मैं उन्हें राजा बहादुर की पदवी प्रदान की। देश की आजादी तक छतरपुर का राज्य प्रताप सिंह के वंशजों के अधिकार में रहा। बुंदेलखंड में स्थित जैतपुर के राजा ने अपनी पुत्री का विवाह अचलजू परमार से किया व दहेज मे 12 लाख की जागीर के उमरो ददरी चिल्लो आदि कई गांव दिए। 18 वीं सदी में बेड़ी राज्य की स्थापना हुई। अचलजू के बाद क्रमशः खुमानसिंह फेरनसिंह विश्वनाथसिंह विजयसिंह रघुराजसिंह तिलकसिंह आदि शासक हुए। देश की आजादी तक यह राज्य बना रहा।
इसके अतिरिक्त बखतगढ़ व मथवार (मालवा) तथा बाघल (शिमला हि प्र) आदि परमारों के राज्य थे। आबू व नो कोटी मारवाड़ के शासक धरणीवराह जिनका समय पाँचवी छटी शताब्दी माना जाता है। धरणीवराह के वंशज सोढ़ हुए। इन्ही सोढ़ाजी के वंशज सोढ़ा परमार कहलाते है। अमरकोट के शासक धारावर्ष के छोटे पुत्र आसराव ने कच्छ भुज के उत्तरी भाग पर अधिकार कर पारकर राज्य की स्थापना की।
आसराव के बाद क्रमशः देवराज सलखा देवा खंगार भीम बैरसल भाखरसी गांगो अखो माणकराव लुणो देवो आदि पारकर के परमार शासक हुए।
*परमारों के नवीन राज्य*
(1) *दांता राज्य* :--
(2) *पीसांगन(अजमेर)* :--
(3) *देवास व धार राज्य* :--
(4) *टेहरीगढ़वाल व पोरीगढ़वाल राज्य* :--
(5) *जगदीशपुर व डूमराव (बिहार) राज्य* :--
(6) *राजगढ़ और नरसिंहगढ़ (म प्र) राज्य* :--
(7) *छतरपुर राज्य* :--
(8) *बेड़ी राज्य* :--
(9) *अमरकोट सिन्ध राज्य* :--
यह सोढ़ा सुमरा परमारों के राज्य अमरकोट गया। सोढ़ाजी ने सुमरा परमारों की मदद से राताकोट पर अधिकार किया। सोढ़ाजी के बाद रायसी व राणा चाचकदे राताकोट के स्वामी हुए।
वि सं 1212 मे चाचकदे सोढ़ा ने सुमरा परमारों को हराकर अमरकोट पर भी अधिकार कर लिया।
चाचकदे के बाद क्रमशः जयभ्रम जसहड़ सोमेश्वर व धारावर्ष हुए। धारावर्ष के बड़े पुत्र दुर्जनशाल अमरकोट के राजा हुए व छोटे पुत्र आसराव ने पारकर पर अधिकार किया।
दुर्जनशाल के बाद क्रमशः खींवरा अवतारदे थीरा व हम्मीर हुए। हम्मीर ने अमरकोट पर सैय्यदों का आक्रमण विफल किया। हम्मीर के बाद क्रमशः बीसा तेजसी कुम्पा चांपा गंगा व पत्ता गद्दी पर बैठे।
पत्ता ने हुमायूं को अमरकोट मे शरण दी। वि सं 1598 मे अकबर का जन्म अमरकोट मे ही हुआ था।
पत्ता के बाद चन्द्रसेन भोजराज व राणा ईशरदास राजा हुए। वि सं 1710 मे जैसलमेर के राजा सबलसिंह ने ईशरदास से अमरकोट छीनकर अपने चाचा जयसिंह को दे दिया। इस प्रकार अमरकोट जैसलमेर के अधीन हो गया। (10) *पारकर राज्य* :--
परम्परा मे चावड़ा परमारों की शाखा मानी जाती है। निम्न छप्पय भी इस परम्परा की पुष्टि करता है :-- परमारों का पहले आबू पर राज्य था, उनके नौ कोट थे।बनराज चावड़ा ने अलहणपुर नामक दसवां दूर्ग स्थापित किया। चावड़ों का सबसे प्राचीन राज्य भीनमाल राजस्थान में था। प्रसिद्ध संस्कृत कवि बाघ भीनमाल का ही निवासी था। बाघ ने अपने ग्रंथ शिशुपाल वध में चावड़ा राजा वर्तमाल का नाम लिखा है। इनका समय विक्रम संवत 682 था। वर्तमाल के उत्तराधिकारी राजा व्याघ्रमुख का समय विक्रम संवत 685 था। इसके बाद लगातार चावड़ों ने अरबों का डटकर मुकाबला किया और उन्हें आगे नहीं बढ़ने दिया। किंतु लगातार आक्रमणों से चावड़ा बड़े कमजोर हो गए। व परिहारों ने उनके राज्य पर अधिकार कर लिया। भीनमाल के चावड़ों का कोई वंशज सारस्वत मंडल में कच्छ के रण के पास पंचसर में रहता था। राजा जयशिखरी चावड़ा को भुयड़ चालुक्य ने मार डाला तब रानी गर्भवती थी। रानी के भाई ने जंगल में रानी की रक्षा की। वन में जन्म होने के कारण बालक का नाम वनराज रखा। यह वनराज चावड़ा आगे चलकर गुजरात का प्रतापी राजा हुआ। वनराज ने कन्नौज के एक करसंग्राहक से गुजरात में 24 लाख चांदी के सिक्के लूट लिए व उससे सैनिक शक्ति संग्रहित की और राज्य कायम किया।
विपत्ति के समय चांपा भील व रेबारी ग्वाला अणहल ने वनराज की सहायता की थी। अतः वनराज ने चांपा को अपना मंत्री बनाया वह अणहिल के नाम से अणहिलपुर (पाटन) विक्रम संवत 802 में बसाया। जैन मुनि शीलगुण सूरी ने दीक्षा दी थी इस कारण अणहिलपुर में पार्श्वनाथ जैन मंदिर की स्थापना की। विक्रम संवत 862 तक वनराज का राज्य रहा। इसके बाद जोगराज रत्नादित्य बैरसिंह खेमराज मुण्डराज व सामंत सिंह अणहिलपुर के राजा हुए। सामंतसिंह की पुत्री राजी नामक चालुक्य को ब्याही थी उसका पुत्र मूलराज हुआ। मूलराज चालुक्य ने अपने नाना सामंतसिंह को मारकर विक्रम संवत 1017 में अणहिलपुर (पाटन) का राजा बन गया। इसके बाद चावड़ा का पालनपुर में राज्य रहा।
बड़वाड़ कटिहार में एक धरणीवराह नामक चावड़ा भी विक्रम संवत 974 के लगभग शासन करता था। राजस्थान मे राठौड़ राज्य के संस्थापक राव सीहा जी के पुत्र अज जी ने विक्रम की 14 वी शताब्दी के पूर्वार्ध में द्वारिका गुजरात पर अधिकार किया। उस समय द्वारिका पर चावड़ों का राज्य था। और उनसे ही अज ने द्वारिका का राज्य प्राप्त किया था।
इस समय गुजरात के कई स्थानों पर चावड़ा राजपूत निवास करते हैं। चावड़ा राजस्थान व मध्यप्रदेश में भी कई स्थानों पर निवासरत है। वनराज चावड़ा के वंशज उत्तर प्रदेश में खीरी हरदोई सीतापुर बाराबंकी आदि स्थानों पर मिलते हैं। गुजरात में मणासा बरसोड़ा महीकांठा भिलोड़िया रामपुरा रेवाकांठा आंकड़िया व मेवाड़ में कलवड़वास चावड़ों के ठिकाने थे। 18 *चावड़ा वंश*
प्रथम चाल चण्डेल , शब्दगण सेष सुणायो।
अरबद दीधी आण , होम अतर देस पायो।।
परवरियो परमार बास , भिनमाल बसायो।
नवकोट कर नेत्र खेत्र , जागणो खसायो।।
भोगवे भोग शत्रुत्रणा , तण राखियो रंग।
वनराज कंवरे वासियो , अलहणपुर दुरंग।। भावार्थ :--
परमारों में कोई चाप नामक व्यक्ति हुए उनके वंशज चावड़ा कहलाए।
(1) भीनमाल राज्य :--
(2) आणहिलवाड़ा (गुजरात) राज्य :--
परमार 36 राजवंशों में माने गए है | ८वीं शताब्दी से 13वीं शताब्दी विक्रमी तक इनका इस देश में विशाल सम्राज्य था इन वीर क्षत्रियों के इतिहास का वर्णन करने से पूर्व उतपत्ति के सन्दर्भ देखे | परमारों तणी प्रथ्वी परमार क्षत्रिय परम्परा में अग्निवंशी माने जाते है इसकी पुष्टि साहित्य और शिलालेख और शिलालेख भी करते है | प्रथमत: यहाँ उन अवतरणों को रखा जायेगा जिसमे परमारों की उतपत्ति अग्निकुंड से बताई गयी हे बाद में विचार करेंगे | अग्निकुंड से उतपत्ति सिद्ध करने वाला अवतरण वाक्पतिकुंज वि. सं. १०३१-१०५० के दरबारी कवी पद्मगुप्त द्वारा रचित नवसहशांक -चरित पुस्तक में पाया जाता है जिसका सार यह है की आबू -पर्वत वशिष्ठ ऋषि रहते थे | उनकी गो नंदनी को विश्वामित्र छल से हर ले गए | इस पर वशिष्ठ मुनि ने क्रोध में आकर अग्निकुंड में आहूति दी जिससे वीर पुरुष उस कुंड से प्रकट हुआ जो शत्रु को पराजीत कर गो को ले आया जिससे प्रसन्न होकर ऋषि ने उस का नाम परमार रखा उस वीर पुरुष के वंश का नाम परमार हुआ | भोज परमार वि. १०७६-१०९९ के समय के कवि धनपाल ने तिलोकमंजरी में परमारों की उत्पत्ति सम्बन्धी प्रसंग इस प्रकार है | बागड़ डूंगरपुर बांसवाडा के अर्थुणा गाँव में मिले परमार चामुंडाराज द्वारा बनाये गए महादेव मंदिर के फाल्गुन सुदी ७ वि. ११३७ के शिलालेख में लिखा है - कोई प्रचंड धनुषदंड को धारण किया हुआ था और अपनी विषम द्रष्टि से यज्ञोपवित धारण कीये हुए था और अपनी विषम द्रष्टि से जीवलोक को डराने का पर्यत्न करता हुआ शत्रुदल के संहार्थ पसमर्थ था | ऐसा कोई प्रखर तेजस्वी अद्भुत पुरुष उस यज्ञ कुंड से मिला | यह वीर पुरुष वसिष्ठ की आज्ञा से शत्रुओं का संहार करके और कामधेनु अपने साथ में लेकर ऋषि वशिष्ठ के चरण कमलों में नत मस्तक होता हुआ उपस्थित हुआ |उस समय वीर के कार्यों से संतुष्ट होकर ऋषि ने मांगलिक आशीर्वाद देते हुए उसको परमार नाम से अभिहित किया |
परमारों के उत्पत्ति सम्बन्धी ऐसे हि विवरण बाद के शिलालेख व् प्रथ्वीराज रासो आदी साहित्यिक ग्रंथो में भी अंकित किया गया है |
इन विवरणों के अध्धयन से मालूम होता हे की 11वि, १२ वि. शताब्दी के साहित्यिक व् शिलालेखकार उस प्राचीन आख्यान से पूरी तरह प्रभावित थे जिसमे कहा गया है की ऐक बार वशिष्ठ की कामधेनु गाय को विश्वामित्र की सेना को पराजीत करने के लिए कामधेनु ने शक, यवन ,पल्ह्व ,आदी वीरों को उत्पन्न किया | फिर भी यह निस्संकोच कहा जा सकता है की 11वि. सदी में परमार अपनी उत्पति वशिष्ठ के अग्निकुंड से मानते थे और यह कथानक इतना पुराना हो चूका था जिसके कारन 11वि. शताब्दी के साहित्य और शिलालेखों में चमत्कारी अंश समाहित हो गया था वरना प्रकर्ति नियम के विरुद्ध अग्निकुंड से उत्पत्ति के सिद्धांत को कपोल कल्पित मानते है पर ऐसा मानना भी सत्य के नजदीक नहीं हे कोई न कोई अग्निकुंड सम्बन्धी घटना जरुर घटी है जिसके कारन यह कथानक कई शताब्दियों बाद तक जन मानस में चलता रहा है और आज भी चलन रहा है | अग्निवंश से उत्पत्ति सम्बन्धी इस घटना को भविष्य पुराण ठीक ढंग से प्रस्तुत करता है | इस पुराण में लिखा है | भावार्थ यह हे की विंदुसार के पुत्र अशोक के काल में आबू पर्वत पर कान्यकुब्ज के ब्राह्मणों में ब्रह्म्होम किया और वेद मन्त्रों के प्रभाव से चार क्षत्रिय उत्पन्न किये सामवेद प्रमर ( परमार ) यजुर्वेद से चाव्हाण ( चौहान ) 47 वें श्लोक का अर्थ स्पष्ट नहीं है परन्तु परिहारक से अर्थ प्रतिहार और चालुक्य ( सोलंकी) होना चाहिए | क्यूंकि प्रतिहारों को प्रथ्विराज रासो आदी में अग्नि वंशी अंकित किया गया है और परम्परा में भी यही माना जाता है | भविष्य पुराण के इन श्लोकों से कुछ महत्वपूर्ण बातें सामने आती है | प्रथमतः आबू पर किये गए इस यज्ञ का समय निश्चिन्त होता हे यह यज्ञ माउन्ट आबू पर सम्राट अशोक के पत्रों के काल में २३२ -से २१५ ई. पू. हुआ था |दुसरे यह यज्ञ वशिष्ठ और विश्वामित्र की शत्रुता के फलस्वरूप नहीं हुआ | बल्कि वेदादीधर्म के प्रचार प्रसार के लिए ब्रहम यज्ञ किया और यह यज्ञ वैदिक धर्म के पक्ष पाती चार पुरुषार्थी क्षत्रियों के नेतृत्व में विश्वामित्र सम्बन्धी प्राचीन ट=यज्ञ घटना को भ्रम्वंश अंकित किया गया | वशिष्ठ की गाय सम्बन्ध घटना के समय यदि परमार की उत्पत्ति हो तो बाद के साहित्य रामायण ,महाभारत ,पुराण आदी में परमारों की उतपत्ति का उल्लेख आता पर ऐसा नहीं है | अतः परमारों की उत्पत्ति वशिष्ठ -विश्वामित्र सम्बन्धी घटना के सन्दर्भ में हुए यज्ञ से नहीं , अशोक के पुत्रों के काल में हुए ब्रहम यग्य से हुयी मानी जानी चाहिए | आबू पर हुए यज्ञ को सही परिस्थतियों में समझने पर यह निश्किर्य है की वैदिक धर्म के उत्थान के लिए उसके प्रचार प्रसार हेतु किसी वशिष्ठ नामक ब्राहमण ने यग्य करवाया , चार क्षत्रियों ने उस यज्ञ को संपन्न करवाया ,उनका नवीन ( यज्ञ नाम ) परमार ,चौहान . चालुक्य और प्रतिहार हुआ | अब प्रसन्न यह हे की वे चार क्षत्रिय कोन थे ? जो इस यज्ञ में सामिल हुए थे | अध्धयन से लगया वे मूलतः सूर्य एवम चंद्र वंश क्षत्रिय थे | अग्नि यज्ञ की घटना से पूर्व परमार कोन था ? इसकी विवेचना करते हे | पहले उन उदहारण को रखेंगे जो परमारों के साहित्य ,ताम्र पत्रादि में अंकित किये गए है और तत्वपश्चात उनकी विवेचना करेंगे| सबसे प्राचीन उल्लेख परमार सियक ( हर्ष ) के हरसोर अहमदाबाद के पास में मिले है वि. सं. १००५ के दानपत्र में पाया गया हे जो इस प्रकार है - यह सियक परमार जिसके पिता का नाम बैरसी तथा दादा का नाम वाक्पति "( वप्पेराय ) था , या वाक्पति मुंज परमार ( मालवा ) का पिता था और राष्ट्रकूटों का इस समय सामंत था | अतः इस ताम्रपत्र में पहले आपने सम्राट के वंश का परिचय देता हे और तत्त्व पश्चात् आपने दादा और आपने पिता का नाम अंकित करता है | भावार्थ यह है की - परमभट्टारक महाराजाधिराज राज परमेश्वर श्री मान ओधवर्षदेव उनकें चरणों का ध्यान करने वाला परमभट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर श्रीमान अकालवर्षदेव उस कुल में वप्पेराज ,बैरसी ,व् सियक हुए | इससे अर्थ निकलता है परमार भी राष्ट्रकूटों से निकले हुए है थे | अधिक उदार अर्थ करें तो राष्ट्र कूटों की तरह परमार भी यादव थे यानी चन्द्रवंशी थे | इस प्रकार विक्रमी की 11वि. सदी सो वर्ष की अवधि में हि परमारों की उत्पति के सन्दर्भ में तीन तरह के उल्लेख मिलते हेई अग्निकुंड से उत्पत्ति ,राष्ट्र कूटों से उत्पति ब्रहम क्षत्र कुलीन | इतिहासकार सो वर्ष की अवधि के हि इन विद्वानों ने तीन तरह की बाते क्यूँ लिख दी ? क्या इन्होने अज्ञानवश ऐसा लिखा ? हमारा विचार यह हे की तीनो मत सही है | मूलतः चंद्रवंशी राष्ट्रकूटों के वंश में थे | अतः प्रसंगवश १००५ वि.के ताम्र पात्र अपने लिए लिखा की जिस कुल में अमोध वर्ष आदी राष्ट्र कूट राजा थे उस कुल में हम भी है | परमार आबू पर हुए यज्ञ की घटना से सम्बंधित था अतः परमारों को अग्निवंशी भी अंकित किया गया | ओझाजी ने ब्रहमक्षत्र को ब्राहमण और क्षत्रिय दोनों गुणों युक्त बताया है | परमार पहले ब्राहमण थे फिर क्षत्रिय हो गए | हमारे प्राचीन ग्रन्थ यह तो सिद्ध करते हे की बहुत से क्षत्रिय ब्राहमण हो गए मान्धाता क्षत्रिय के वंशज , विष्णुवृद्ध हरितादी ब्राहमण हो गए | चन्द्रवंश के विश्वामित्र , अरिष्टसेन आदी ब्राहमण को प्राप्त हो गए | पर ऐसे उदहारण नहीं मिल रहे हे जिनसे यह सिद्ध होता हे की कोई ब्राहमण परशुराम में क्षत्रिय के गुण थे | फिर भी ब्राहमण रहे ,शुंगो ,सातवाहनो ,कन्द्वों आदी ब्राहमण रहे | परमारों को तो प्राचीन साहित्य में भी क्षत्रिय कहा गया हे | यशोवर्मन कन्नोज ८वीं शताब्दी के दरबारी कवी वप्पाराव ( बप्पभट ) ने राजा के दरबारी वाक्पति परमार की क्षत्रियों में उज्वल रत्न कहा है | अतः परमार कभी ब्राहमण नहीं थे क्षत्रिय हि थे | ब्राहमण से क्षत्रिय होने की बात कल्पना हि है | इसका कोई आधार नहीं है ओझाजी ने ब्रहमक्षत्र का अर्थ ब्राहमण व् क्षत्रिय दोनों गुणों से युक्त बतलाया हे पर हमारा चिंतन कुछ दूसरी तरह मुड़ रहा हैं | यहाँ केवल '' ब्रह्मक्षेत्र '' शब्द नहीं है | यह ब्रहमक्षत्र कुल है | प्राचीन साहित्य की तरह ध्यान देते हे तो ब्रहमक्षत्र कुल की पहचान होती है | इसमें विजयसेन के पूर्वज सामंतसेन को ब्रहमवादी को ब्रहमवादी और ब्रहमक्षत्रिय कुल का शिरोमणि कहा है |
इन साक्ष्यों में ब्रहमक्षत्र कुल चन्द्रवंश के लिए प्रयोग हुआ है | किसी सूर्यवंशी राजा के लिए ब्रहमक्षत्र ? कुल का प्रयोग नजर नहीं आया |इससे मत यह हे की चंद्रवंशी को ब्रहमक्षत्र कुल भी कहा गया है | सोम क्षत्रिय + तारा ब्राहमनी =बुध | इसी तरह ययाति क्षत्रिय क्षत्रिय + देवयानी ब्राह्मणी =यदु | इस प्रकार देखते हे की चन्द्रवंश में ब्राहमण और क्षत्रिय दोनों जातियों का रक्त प्रवाहित था | संभवतः इस कारन चन्द्रवंश की और हि संकेत है | इस प्रकार परमार मूलतः चंद्रवंशी आधुनिक आलेख इस बात का समर्थन करते है - पंवार प्रथम चंद्रवंशी लिखे जाते थे | बहादुर सिंह बीदासर पंजाब में अब भी चंद्रवंशी मानते है| अम्बाराया परमार ( पंवार ) चंद्रवंशी जगदेव की संतान पंजाब में है | और फिर परमार आबू के ब्रहमहोम में शामिल होने से अग्निवंशी भी कहलाये | आगे चलकर अग्निवंशी इतना लोकपिर्य हो गया की परमारों को अग्निवंशी हि कहने लग गए और शिलालेखों और साहित्य में अग्निवंशी हि अंकित किया गया | इसके विपरीत परमारों के लिए मेरुतुन्गाचार्य वि. १३६१ स्थिवरावली में उज्जेन के गिर्दभिल्ल को सम्प्रति ( अशोक का पुत्र ) के वंश में होना लिखता है | गर्दभिल्ल ( गन्धर्वसेन ) विक्रमदित्य ( पंवार ) का पिता माना जाता है इससे परमार मोर्य सिद्ध होते है परन्तु सम्प्रति के पुत्रों में कोई परमार नामक पुत्र का अस्तित्व नहीं मिलता है | दुसरे सम्प्रति jain धरम अनुयायी था और उसका पिता अशोक ऐसा सम्राट था जिसने इस देश में नहीं ,विदेशों तक बोध धर्म फैला दिया था | अतः सम्प्रति के पुत्र या पोत्र का वैदिक धरम के लिए प्रचार के लिए होने वाले ब्रहम यज्ञ में शामिल होना समीचीन नहीं जान पड़ता | दुसरे यह आलेख बहुत बाद का 14वीं शताब्दी का है जो शायद परमारों की ऐक शाखा मोरी होने से परमारों की उत्पत्ति मोर्यों से होना मान लिया लगता है | अन्य पुष्टि प्रमाणों के सामने यह साक्ष्य विशेष महत्व नहीं रखता | अतः मूलतः परमार चन्द्रवंशी और फिर अग्निवंशी हुए | परमारों का प्राचीन इतिवृत लिखने से पूर्व यह निश्चिन्त करना चाहिए की उनका प्राचीन इतिहास किस समय से प्रारंभ होता है | इतिहास के प्रकंड विद्वान् ओझाजी ने शिलालेखों के आधार पर परमारों का इतिहास घुम्राज के वंशज सिन्धुराज से शुरू किया है | जिसका समय परमार शासक पूर्णपाल के बसतगढ़ ( सिरोही -राजस्थान ) में मिले शिलालेखों की वि. सं. १०९९ के आधार पर पूर्णपाल से ७ पीढ़ी पूर्व के परमार शासक सिन्धुराज का समय ९५९ विक्रमी के लगभग होता है | और इस सिन्धुराज को यदि मुंज का भाई माना जाय तो यह समय १०३१ वि. के बाद का पड़ता है | इससे पूर्व परमार कितने प्राचीन थे ? विचार करते है | चाटसु ( जयपुर ) के गुहिलों के शिलालेखों में ऐक गुहिल नामक शासक की शादी परमार वल्लभराज की पुत्री रज्जा से हुयी थी | इस हूल का पिता हर्षराज राजा मिहिर भोज प्रतिहार के समकालीन था जिसका समय वि. सं. ८९३ -९३८ था | यह शिलालेख सिद्ध करता है की इस शिलालेख का वल्लभराज ,सिन्धुराज परमार ( मारवाड़ ) का वंशज नहीं था इससे प्राचीन था |राजा यशोवर्मन वि. ७५७-७९७ लगभग कन्नोज का सम्राट था उसके दरबारी वाक्पति परमार के लिए कवी बप्पभट्ट आपने ब्प्पभट्ट चरित में लिखता है की वह क्षत्रियों में महत्वपूर्ण रत्न तथा परमार कुल का है इससे सिद्ध होता हे की कन्नोज में यशोवर्मन के दरबारी वाक्पति परमार चाटसु शिलालेख से प्राचीन है | शिलालेख और तत्कालीन साहित्य के विवरण के पश्चात अब बही व्=भाटों के विवरणों की तरह ध्यान दे | भाटी क्षत्रियों के बहीभाटों के प्राचीन रिकार्ड के आधार पर इतिहास में टाड ने लिखा हे - भाटी मंगलराव ने शालिवाहनपुर ( वर्तमान में सियाल कोट भाटियों की राजधानी ) जब छूट गयी तो पूरब की तरह बढ़े और नदी के किनारे रहने वाले बराह तथा बूटा परमारों के यहाँ शरण ली | यह किला यदु - भाटी इतिहास्वेताओं के अनुसार सं. ७८७ में बना था वराहपती ( परमार के साथ मूलराज की पुत्री की शादी हुयी | केहर के पुत्र तनु ने वराह जाती को परास्त किया और अपने पुत्र विजय राज को बुंटा जाती की कन्या से विवाह किया | ये परमार हि थे |
देवराज देरावर के शासक को धार के परमारों से भी संघर्ष हुआ | वराह परमारों के साथ इन भाटियों के सघर्ष का समर्थन राजपूताने के इतिहास के लेखक जगदीस सिंह गहलोत भी करते हे | देवराज का समय प्रतिहार बाऊक के मंडोर शिलालेख ८९४ वि. के अनुसार वि. ८९४ के लगभग पड़ता है | इस शिलालेख में लिखा हे की शिलुक प्रतिहार ने देवराज भट्टीक वल्ल मंडल ( वर्तमान बाड़मेर जैसलमेर क्षेत्र ) के शासक को मार डाला | इस द्रष्टि से देवराज से ६ पढ़ी पूर्व मंगलराव का समय 700 वि. के करीब पड़ता है | इस हिसाब से ७वीं शताब्दी में भी परमारों का राज्य राजस्थान के पश्चमी भाग पर था | उस समय परमारों की वराह और बुंटा खांप का उल्लेख मिलता है नेणसी ऋ ख्यात बराह राजपूत के कहे छ; पंवारा मिले इसी प्रष्ट पर देवराज के पिता भाटी विजयराज और बराधक संघर्ष का वर्णन है | नेणसी ने आगे लिखा हे की धरणीवराह परमार ने अपने नो भाइयों में अपने राज्य को नो कोट ( किले ) में बाँट दिया | इस कारन मारवाड़ नोकोटी मारवाड़ कहलाती है | अर्थात मंडोर सांवत ,को सांभर ( छपय को ,पूंगल गजमल को ,लुद्र्वा भाण को ,धरधाट ( अमरकोट क्षेत्र ) जोगराज को पारकर ( पाकिस्तान में ) हासू को ,आबू अल्ह ,पुलह को जालन्धर ( जालोर ) भोजराज को और किराडू ( बाड़मेर ) अपने पास रखा | धरणीवराह नामक शासक शिलालेखीय अधरों पर वि १०१७ -१०५२ के बीच सिद्ध होता है | परन्तु परमारों के नव कोटों पर अधिकार की बात सोचे तो यह धरणीवराह भिन्न नजर आता है | मंडोर पर सातवीं शताब्दी के लगभग हरिश्चंद्र ब्राहमण प्रतिहार के पुत्रों का राज्य बाऊक के मंडोर के शिलालेख ८९४ वि. सं. सिद्ध होता है अतः धरणीवराह के भाई सांवत करज्य इस समय से पूर्व होना चाहिए | इस प्रकार लुद्रवा पर भाटियों का अधिकार 9वि. शताब्दी वि. में हो गया था | इस प्रकार भटिंडा क्षेत्र पर जो वराह पंवार शासन कर रहे थे | मेरी समझ धरणीवराह के हि वंशज थे जो अपने पूर्व पुरुष धरणीवराह के नाम से आगे चलकर वराह पंवार ( परमार ) कहलाने लगे थे | ऐसी स्थति में धरणीवराह का समय ६टी ७वि शताब्दी में परमार पश्चमी राजस्थान पर शासन कर रहे थे | परमारों ने यहाँ का राज्य नाग जाती से लिया होगा जेसे निम्न पद्य में संकेत हे मंडोर की नागाद्रिन्दी ,वहां का नागकुंड ,नागोर (नागउर ) पुष्कर का नाम ,सीकर के आसपास का अन्नत -अन्नतगोचर क्षेत्र आदी नाम नाग्जाती के राजस्थान में शासन करने की और संकेत करते हें | तक्षक नाग के वंशज टाक नागोर जिले में 14वीं शताब्दी तक थे | उनमे से हि जफ़रखां गुजरात का शासक हुआ | यह नागों का राज्य चौथी पांचवी शताब्दी तक था | इसके बाद परमारों का राज्य हुआ | चावड़ा व् डोडिया भी परमारों की साखा मानी जाती है | चावडो की प्राचीनता विक्रम की ७वि चावडो का भीनमाल में राज्य था | उस वंश का व्याघ्रमुख ब्रह्मस्पुट सिद्धांत जिसकी रचना ६८५ वि. में हुयी उसके अनुसार वह वि. ६८५ में शासन कर रहा था इन सब साक्ष्यों से जाना जा सकता हे की राजस्थान के पश्चमी भाग पर परमार ६ठी शताब्दी से पूर्व हि जम गए थे और 700 वि. सं. पूर्व धरणीवराह नाम का कोई प्रसिद्द परमार था जिसने अपना राज्य अपने सहित नो भागो में बाँट दिया था | इन श्रोतों के बाद जब पुरानो को देखते हे तो भविष्य पुराण के अनुवाद मालवा पर शासन करने वाले शासकों के नाम मिलते हे - विक्रमादित्य ,देवभट्ट ,शालिवाहन ,गालीहोम आदी | विक्रमादित्य परमार माना जाता था | इसका अर्थ हुआ विक्रम संवत के प्रारंभ में परमारों का अस्तित्व था | भविष्य पुराण के अनुसार अशोक के पुत्रों के काल में आबू पर्वत पर हुए ब्रहमयज्ञ में परमार उपस्थित था | इस प्रकार परमारों का अस्तित्व दूसरी शादी ई.पू. तक जाता है |
अब यहाँ परमारों के प्राचीन इतिवृत को संक्षिप्त रूप से अंकित किया जा रहा है | अशोक के पुत्रों के काल २३२ से २१४ ई.पू. आबू पर ब्रहमहोम (यज्ञ ) हुआ | इस यज्ञ में कोई चंद्रवंशी क्षत्रिय शामिल हुए | ऋषियों ने सोमवेद के मन्त्र से उसका यज्ञ नाम प्रमार( परमार ) रखा | इसी परमार के वंशज परमार क्षत्रिय हुए | भविष्य पुराण के अनुसार यह परमार अवन्ती उज्जेन का शासक हुआ | ( अवन्ते प्रमरोभूपश्चतुर्योजन विस्तृताम | अम्बावतो नाम पुरीममध्यास्य सुखितोभवत ||49|| भविष्य पुराण पर्व खंड १ अ. ६ इसके बाद महमद ,देवापी ,देवहूत ,गंधर्वसेन हुए | इस गंधर्वसेन का पुत्र विक्रमदित्य था भविष्य पुराण के अनुसार यह विक्रमादित्य जनमानस में बहुत प्रसिद्द रहा है | इसे जन श्रुतियों में पंवार परमार माना है | प्रथम शताब्दी का सातवाहन शासक हाल अपने ग्रन्थ गाथा सप्तशती में लिखता हे - उस काल को नमस्कार है जिसने उज्जेनी नगरी ,राजा विक्रमादित्य ,उसका सामंतचक्र और विद्वत परिषद् सबको समेट लिया | यह सब साक्ष्य विक्रमादित्य ने शकों को पराजीत कर भारतीय जनता को बड़ा उपकार किया | मेरुतुंगाचार्य की पद्मावली से मालूम होता हे की गर्दभिल्ल के पुत्र विक्रमादित्य ने शकों से उज्जयनी का राज्य लोटा दिया था |विक्रमादित्य का दरबार विद्वानों को दरबार था |विद्वानों की राय में इस समय पुन: कृतयुग का समय आ रहा था | अतः शकों पर विजय की पश्चात् विक्रमादित्य का दरबार पुनः विद्वानों का दरबार था | विद्वानों की राय से कृत संवत का सुभारम्भ किया | फिर यही कृत संवत ( सिद्धम्कृतयोद्ध्रे मोध्वर्षशतोद्ध्र्यथीतयो २००८५ ( २ चेत्र पूर्णमासी मालव जनपद के नाम से मालव संवत कहलाया |उज्जेन के चारों और का क्षेत्र मालव ( मालवा ) कहलाता था | उसी जनपद के नाम से मालव संवत कहलाया | फिर 9वीं शताब्दी में विक्रमादित्य के नाम से विक्रम संवत हो गया | कथा सरित्सागर में विक्रमादित्य के पिता का नाम महेंद्रदित्य लिखा गया है | विक्रमादित्य के बाद भविष्य पुराण के अनुसार रेवभट्ट ,शालिवाहन ,शालिवर्धन ,सुदीहोम ,इंद्रपाल ,माल्यवान , संभुदत ,भोमराज ,वत्सराज ,भाजराज ,संभुदत ,विन्दुपाल ,राजपाल ,महिनर,शकहंता,शुहोत्र ,सोमवर्मा ,कानर्व ,भूमिपाल , रंगपाल ,कल्वसी व् गंगासी मालवा के शासक हुए | इसी प्रकार करीब ५वि ६ठी शताब्दी तक परमारों का मालवा पर शासन करने की बात भविष्य पुराण कहता हे | मालूम होता हे हूणों ने मालवा से परमारों का राज्य समाप्त कर दिया होगा | संभवत परमार यहाँ सामंत रूप थे पश्चमी राजस्थान आबू ,बाड़मेर ,लोद्रवा ,पुगल आदी पर भी परमारों का राज्य था और उन्होंने संभतः नागजाती से यह राज्य छीन लिया था | इन परमारों में धरणीवराह नामक प्रसिद्द शासक हुआ जिसने अपने सहित राज्य को नो भागो में बांटकर आपने भाइयों को भी दे दिया था | वी .एस परमार ने विक्रमादित्य से धरणीवराह तक वंशावली इस प्रकार दी हे विक्रमादित्य के बाद क्रमशः ,विक्रम चरित्र ,राजा कर्ण, अहिकर्ण ,आँसूबोल ,गोयलदेव ,महिपाल , हरभान., राजधर , अभयपाल ,राजा मोरध्वज , महिकर्ण ,रसुल्पाल, द्वन्दराय , इति , यदि यह वंशावली ठीक हे तो वंशावली की यह धारा विक्रमादित्य के पुत्र या पोत्रों से अलग हुयी | क्यूँ की यह वंशवली भविष्य पुराण की वंशवली से मेल नहीं खाती हे | नवी शताब्दी में वराह परमारों से देवराज भाटी ने लोद्रवा ले लिया था तथा वि. की सातवीं में ब्राहमण हरियचंद्र के पुत्रों मंडोर का क्षेत्र लिया | सोजत का क्षेत्र हलो ने छीन लिया था तब परमारों का राज्य निर्बल हो गया था | आबू क्षेत्र में परमारों का पुनरुथान vikram की 11वीं शताब्दी में हुआ | पुनरुत्थान के इस काल में आबू पश्चमी राजस्थान के परमारों में सर्वप्रथम सिन्धुराज का नाम मिलता है इस प्रकार मालवा व् पश्चमी राजस्थान के परमारों का प्राचीन राज्य वर्चस्वहीन हो गया | परमार ( पंवार ) राजवंश की उतपत्ति और राज्य
परमार पंवार राजवंश
उत्पत्ति :-
वाषिष्ठेसम कृतस्म्यो बरशेतरस्त्याग्निकुंडोद्रवो |
भूपाल: परमार इत्यभिघयाख्यातो महिमंडले ||
अधाष्युद्रवहर्षगग्दद्गिरो गायन्ति यस्यार्बुदे |
विश्वामित्रजयोजिझ्ततस्य भुजयोविस्फर्जित गुर्जरा: ||
मालवा नरेश उदायित्व परमार के वि.सं. ११२९ के उदयपुर शिलालेख में लिखा है |
''अस्त्युवीर्ध प्रतीच्या हिमगिरीतनय: सिद्ध्दं: (दां) पत्यसिध्दे |
स्थानअच ज्ञानभाजामभीमतफलदोअखर्वित: सोअव्वुर्दाव्य: ||४||
विश्वमित्रों वसिष्ठादहरत व (ल) तोयत्रगांतत्प्रभावाज्यग्ये वीरोग्नीकुंडाद्विपूबलनिधनं यश्चकरैक एव ||५||
मारयित्वा परान्धेनुमानिन्ये स ततो मुनि: |
उवाच परमारा (ख्यण ) थिर्वेन्द्रो भविष्यसि ||६||
''विन्दुसारस्ततोअभवतु |
पितुस्तुल्यं कृत राज्यमशोकस्तनमोअभवत ||44||
एत्सिमन्नेत कालेतुकन्यकुब्जोद्विजोतम: |
अर्वूदं शिखरं प्राप्यबंहाहांममथो करोत ||45|
वेदमंत्र प्रभाववाच्चजाताश्च्त्वाऋ क्षत्रिय: |
प्रमरस्सामवेदील च चपहानिर्यजुर्विद: ||46||
त्रिवेदी चू तथा शुक्लोथर्वा स परीहारक: | भविष्य पुराण
तस्मिन् कुलेककल्मषमोषदक्षेजात: प्रतापग्निहतारिप्क्ष:
वप्पेराजेति नृप: प्रसिद्धस्तमात्सुतो भूदनु बैर सिंह (ह) |१ |
द्रप्तारिवनितावक्त्रचन्द्रबिम्ब कलकतानधोतायस्य कीतर्याविहरहासावदातया ||२||
दुव्यरिवेरिभुपाल रणरंगेक नायक: |
नृप: श्री सीयकसतमात्कुलकल्पद्र मोभवत |३|
ब्रहमक्षत्रकुलीन: प्रलीनसामंतचक्रनुत चरण: |
सकलसुक्रतैकपूजच श्रीभान्मुज्ज्श्वर जयति ||
श्रीमद भगवद गीता में चंद्रवंशी अंतिम क्षेमक के प्रसंग में लिखा है -
दंडपाणीनिर्मिस्तस्य क्षेमको भवितानृप:
ब्रहमक्षत्रस्य वे प्राक्तोंवशों देवर्षिसत्कृत: ||( भा.१ //22//44 )
इसकी व्याख्या विद्वानो ने इस प्रकार की है -
तदेव ब्रहमक्षत्रस्य ब्रहमक्षत्रकुलयोयोर्नी: कारणभूतो
वंश सोमवंश: देवे: ऋषिभिस्रचसतत्कृत अनुग्रहित इत्यर्थ
|
अर्थात इस प्रकार मेने तुम्हे ब्राहमण और क्षत्रिय दोनों की उत्पति स्थान सोमवंश का वर्णन सुनाया है |
( अनेक संस्क्रत व्यख्यावली टीका भागवत स्कंध नवम के ४८६ प्र. ८७ के अनुसार ) इस प्रकार विष्णु पुराण अंश ४ अध्याय २० वायु पुराण अंश 99 श्लोक २७८-२७९ में भी यही बात कही गयी है | बंगाल के चंद्रवंशी राजा विजयसेन ( सेनवंशी ) के देवापाड़ा शिलालेख में लिखा गया है -
तस्मिन् सेनान्ववाये प्रतिसुभटतोत्सादन्र्व (ब्र) हमवादी |
स व्र ह्क्षत्रियाँणजनीकुलशिरोदाम सामंतसेन: ए . इ. जि . १ प्र ३०७ प्राचीन इतिवृत -
नेणसी ने नोकोट सम्बन्धी ऐक छपय प्रस्तुत किया है -
मंडोर सांबत हुवो ,अजमेर सिधसु ||
गढ़ पूंगल गजमल हुवो ,लुद्र्वे भाणसु ||
जोंगराज धर धाट हुयो ,हासू पारकर ||
अल्ह पल्ह अरबद ,भोजराज जालन्धर |||
नवकोटी किराडू सुजुगत ,थिसर पंवारा हरथापिया ||
धरनो वराह घर भाईयां , कोट बाँट जूजू किया |||
परमांरा रुधाविया ,नाग गिया पाताल |
हमें बिचारा आसिया किणरी झूले चाल ||
संवाहणसुहरतोसीएणदेनतण तुह करे लक्खम |
चलनेण विक्कमाईव् चरीऊँअणु सिकिखअंतिस्सा ||
भविष्य पुराण १४वि शदी विक्रम प्रबंध कोष आदी ग्रन्थ विक्रमादित्य के अस्तित्व को स्वीकारते हे | संस्कृत साहित्य का इतिहास बलदेव उपाध्याय लिखते हे -
सरम्या नगरीमहान न्रपति: सामंत चक्रंतत |
पाश्रवेततस्य च सावीग्धपरिषद ताश्र्वंद्र बिबानना |
उन्मत: सच राजपूत: निवहस्तेवन्दिन: ताकथा |
सर्वतस्यवशाद्गातस्स्रतिपंथ कालाय तस्मे नमः
परमार या पँवार मध्यकालीन भारत का एक अग्निवंशी क्षत्रिय राजवंश था। इस राजवंश का अधिकार धार-मालवा-उज्जयिनी-आबू पर्वत और सिन्धु के निकट अमरकोट आदि राज्यों तक था। लगभग सम्पूर्ण पश्चमी भारत क्षेत्र में परमार वंश का साम्राज्य था। ये ८वीं शताब्दी से १४वीं शताब्दी तक शासन करते रहे। परमार एक राजवंश का नाम है, जो मध्ययुग के प्रारम्भिक काल में महत्वपूर्ण हुआ। चारण कथाओं में इसका उल्लेख राजपूत जाति के एक गोत्र रूप में मिलता है। परमार सिन्धुराज के दरबारी कवि पद्मगुप्त परिमल ने अपनी पुस्तक 'नवसाहसांकचरित' में एक कथा का वर्णन किया है। ऋषि वशिष्ठ ने ऋषि विश्वामित्र के विरुद्ध युद्ध में सहायता प्राप्त करने के लिये आबु पर्वत पर यज्ञ किया। उस यज्ञ के अग्निकुंड से एक पुरुष प्रकट हुआ । दरअसल ये पुरुष वे थे जिन्होंने ऋषि वशिष्ठ को साथ देने का प्रण लिया जिनके पूर्वज अग्निवंश के क्षत्रिय थे। इस पुरुष का नाम प्रमार रखा गया, जो इस वंश का संस्थापक हुआ और उसी के नाम पर वंश का नाम पड़ा। परमार के अभिलेखों में बाद को भी इस कहानी का पुनरुल्लेख हुआ है। इससे कुछ लोग यों समझने लगे कि परमारों का मूल निवासस्थान आबू पर्वत पर था, जहाँ से वे पड़ोस के देशों में जा जाकर बस गए। किंतु इस वंश के एक प्राचीन अभिलेख से यह पता चलता है कि परमार दक्षिण के राष्ट्रकूटों के उत्तराधिकारी थे।[कृपया उद्धरण जोड़ें] परमार परिवार की मुख्य शाखा आठवीं शताब्दी के प्रारंभिक काल से मालवा में धारा को राजधानी बनाकर राज्य करती थी और इसका प्राचीनतम ज्ञात सदस्य उपेन्द्र कृष्णराज था। इस वंश के प्रारंभिक शासक दक्षिण के राष्ट्रकूटों के सामन्त थे। राष्ट्रकूटों के पतन के बाद सिंपाक द्वितीय के नेतृत्व में यह परिवार स्वतंत्र हो गया। सिपाक द्वितीय का पुत्र वाक्पति मुंज, जो १०वीं शताब्दी के अंतिम चतुर्थांश में हुआ, अपने परिवार की महानता का संस्थापक था। उसने केवल अपनी स्थिति ही सुदृढ़ नहीं की वरन् दक्षिण राजपूताना का भी एक भाग जीत लिया और वहाँ महत्वपूर्ण पदों पर अपने वंश के राजकुमारों को नियुक्त कर दिया। उसका भतीजा भोज, जिसने सन् 1000 से 1055 तक राज्य किया और जो सर्वतोमुखी प्रतिभा का शासक था, मध्युगीन सर्वश्रेष्ठ शासकों में गिना जाता था। भोज ने अपने समय के चौलुभ्य, चंदेल, कालचूरी और चालुक्य इत्यादि सभी शक्तिशाली राज्यों से युद्ध किया। बहुत बड़ी संख्या में विद्वान् इसके दरबार में दयापूर्ण आश्रय पाकर रहते थे। वह स्वयं भी महान् लेखक था और इसने विभिन्न विषयों पर अनेक पुस्तकें लिखी थीं, ऐसा माना जाता है। उसने अपने राज्य के विभिन्न भागों में बड़ी संख्या में मंदिर बनवाए। राजा भोज की मृत्यु के पश्चात् चोलुक्य कर्ण और कर्णाटों ने मालव को जीत लिया, किंतु भोज के एक संबंधी उदयादित्य ने शत्रुओं को बुरी तरह पराजित करके अपना प्रभुत्व पुन: स्थापित करने में सफलता प्राप्त की। उदयादित्य ने मध्यप्रदेश के उदयपुर नामक स्थान में नीलकंठ शिव के विशाल मंदिर का निर्माण कराया था। उदयादित्य का पुत्र जगद्देव बहुत प्रतिष्ठित सम्राट् था। वह मृत्यु के बहुत काल बाद तक पश्चिमी भारत के लोगों में अपनी गौरवपूर्ण उपलब्धियों के लिय प्रसिद्ध रहा। मालव में परमार वंश के अंत अलाउद्दीन खिलजी द्वारा 1305 ई. में कर दिया गया। परमार वंश की एक शाखा आबू पर्वत पर चंद्रावती को राजधानी बनाकर, 10वीं शताब्दी के अंत में 13वीं शताब्दी के अंत तक राज्य करती रही। इस वंश की दूसरी शाखा वगद (वर्तमान बाँसवाड़ा) और डूंगरपुर रियासतों में उट्ठतुक बाँसवाड़ा राज्य में वर्त्तमान अर्थुना की राजधानी पर 10वीं शताब्दी के मध्यकाल से 12वीं शताब्दी के मध्यकाल तक शासन करती रही। वंश की दो शाखाएँ और ज्ञात हैं। एक ने जालोर में, दूसरी ने बिनमाल में 10वीं शताब्दी के अंतिम भाग से 12वीं शताब्दी के अंतिम भाग तक राज्य किया। वर्तमान में परमार वंश की एक शाखा उज्जैन के गांव नंदवासला,खाताखेडी तथा नरसिंहगढ एवं इन्दौर के गांव बेंगन्दा में निवास करते हैं।धारविया परमार तलावली में भी निवास करते हैंकालिका माता के भक्त होने के कारण ये परमार कलौता के नाम से भी जाने जाते हैं।धारविया भोजवंश परमार की एक शाखा धार जिल्हे के सरदारपुर तहसील में रहती है। इनके ईष्टदेव श्री हनुमान जी तथा कुलदेवी माँ कालिका(धार)है|ये अपने यहाँ पैदा होने वाले हर लड़के का मुंडन राजस्थान के पाली जिला के बूसी में स्थित श्री हनुमान जी के मंदिर में करते हैं। इनकी तीन शाखा और है;एक बूसी गाँव में,एक मालपुरिया राजस्थान में तथा एक निमच में निवासरत् है।11वी से 17 वी शताब्दी तक पंवारो का प्रदेशान्तर सतपुड़ा और विदर्भ में हुआ । सतपुड़ा क्षेत्र में उन्हें भोयर पंवार कहा जाता है धारा नगर से 15 वी से 17 वी सदी स्थलांतरित हुए पंवारो की करीब 72 (कुल) शाखाए बैतूल छिंदवाडा वर्धा व् अन्य जिलों में निवास करती हैं। पूर्व विदर्भ, मध्यप्रदेश के बालाघाट सिवनी क्षेत्र में धारा नगर से सन 1700 में स्थलांतरित हुए पंवारो/पोवारो की करीब 36 (कुल) शाखाए निवास करती हैं जो कि राजा भोज को अपना पूर्वज मानते हैं । संस्कृत शब्द प्रमार से अपभ्रंषित होकर परमार तथा पंवार/पोवार/भोयर पंवार शब्द प्रचलित हुए । महान चक्रवर्ती सम्राट विक्रमादित्य परमार (ईसा. पूर्व. 700 से 800 साल पहले हुए होगे । यह सत्य हे कि विक्रम संवत के प्रवर्तक उज्जैनी के सम्राट विक्रमादित्य ही हे । किंतु राजा विक्रमादित्य के बाद कहि सारे राजाओने विक्रमादित्य कि उपाधी धारण की थी ,जैसे चंद्रगुप्त विक्रमादित्य, हेमचंद्र विक्रमादित्य एसे कइ राजाओने विक्रमादित्य कि उपाधि धारण कि थी इसिलिये इतिहास मे मतभेद हुआ होगा कि विक्रम संवत कब शुरु हुआ होगा। कइ इतिहासकारों का मानना हे कि चंद्रगुप्त मौर्य, और सम्राट अशोक ईसा. पूर्व. 350 साल पहले हुए यानी चक्रवर्ती सम्राट विक्रमादित्य चंद्रगुप्त मौर्य के बाद हुए । पर राजा विक्रम के समय चमत्कार था जब कि चंद्रगुप्त मौर्य के समय कोइ चमत्कार नही था। इसिलिये हय बात सिद्ध होती हे कि राजा विक्रम बहुत साल पहले हो चुके हे। उज्जैन के महाराजा विक्रमादित्य माँ हरसिध्धि भवानी को गुजरात से उज्जैनी लाये थे और कुलदेवी माँ हरसिद्धि भवानीको ११ बार शीश काटकर अर्पण किया था। सिंहासन बत्तीसी पर बिराजमान होते थे।जो ३२ गुणो के दाता थे।जिन्होंने महान भुतनाथ बेताल को अपने वश में किया था।जो महापराक्रमी थे त्याग,न्याय और उदारशिलता के लिये जाने जाते थे।और उस समय केवल महाराजा विक्रमादित्य ही सह शरीर स्वर्ग में जा सकते थे| राजा गंधर्वसेन का पुत्र विक्रमादित्य हुए। जयसिंह के बाद राजधानी से मालवा पर राज किया। चालुक्यों से संघर्ष पहले से ही चल रहा था और उसके आधिपत्य से मालवा अभी हाल ही अलग हुआ था जब उदयादित्य लगभग १०५९ ई. में गद्दी पर बैठा। मालवा की शक्ति को पुन: स्थापित करने का संकल्प कर उसने चालुक्यराज कर्ण पर सफल चढ़ाई की। कुछ लोग इस कर्ण को चालुक्य न मानकर कलचुरि लक्ष्मीकर्ण मानते हैं। इस संबंध में कुछ निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता। इसमें संदेह है कि उदयादित्य ने कर्ण को परास्त कर दिया। उदयादित्य का यह प्रयास परमारों का अंतिम प्रयास था और ल. १०८८ ई. में उसकी मृत्यु के बाद परमार वंश की शक्ति उत्तरोत्तर क्षीण होती गई। उदयादित्य. भी शक्तिशाली था। १३०० ई. की साल में गुजरात के भरुचा रक्षक वीर मेहुरजी परमार हुए। जिन्होंने अपनी माँ,बहेन और बेटियों कि लाज बचाने के लिये युद्ध किया और उनका शर कट गया फिर भी 35 कि.मि. तक धड़ लडता रहा।
गुजरात के रापर(वागड) कच्छ में विर वरणेश्र्वर दादा परमार हुए जिन्होंने ने गौ रक्षा के लिये युद्ध किया। उनका भी शर कटा फिर भी धड़ लडता रहा। उनका भी मंदिर है।
गुजरात में सुरेन्द्रनगरमे मुली तालुका हे वहाँ के राजवी थे लखधिर जि परमार. उन्होंने एक तेतर नामक पक्षी के प्राण बचाने ने के लिये युद्ध छिड दिया था। जिसमे उन्होंने जित प्राप्त की।
लखधिर के वंशज साचोसिंह परमार हुए जिन्होंने एक चारण, (बारोट,गढवी )के जिंदा शेर मांगने पर जिंदा शेरका दान दया था।
एक वीर हुए पीर पिथोराजी परमार जिनका मंदिर हे थरपारकर मे हाल पाकिस्तान मे आया हे।जो हिंदवा पिर के नाम से जाने जाते हे। परमार या पँवार
अनुक्रम
1 परिचय
1.1 कथा
1.2 वर्तमान
2 राजा
3 इन्हें भी देखें
4 बाहरी कड़ियाँ परिचय
कथा
वर्तमान
राजा
विक्रमादित्य के बड़े भाई राजा भर्तृहरि थे।
राजा शालिनीवाहन जो विक्रमादित्य का प्रपौत्र था। जो भविष्यपुराण मे वर्णित हे।
उपेन्द्र (800 – 818)
वैरीसिंह प्रथम (818 – 843)
सियक प्रथम (843 – 893)
वाकपति (893 – 918)
वैरीसिंह द्वितीय (918 – 948)
सियक द्वितीय (948 – 974)
वाकपतिराज (974 – 995)
सिंधुराज (995 – 1010)
भोज प्रथम (1010 – 1055), समरांगण सूत्रधार के रचयिता
जयसिंह प्रथम (1055 – 1060)
उदयादित्य (1060 – 1087)
लक्ष्मणदेव (1087 – 1097)
नरवर्मन (1097 – 1134)
यशोवर्मन (1134 – 1142)
जयवर्मन प्रथम (1142 – 1160)
विंध्यवर्मन (1160 – 1193)
सुभातवर्मन (1193 – 1210)
अर्जुनवर्मन I (1210 – 1218)
देवपाल (1218 – 1239)
जयतुगीदेव (1239 – 1256)
जयवर्मन द्वितीय (1256 – 1269)
जयसिंह द्वितीय (1269 – 1274)
अर्जुनवर्मन द्वितीय (1274 – 1283)
भोज द्वितीय (1283 – ?)
महालकदेव (? – 1305)
संजीव सिंह परमार (1305 - 1327)
परमार अग्नि वंशीय हैं। श्री राधागोविन्द सिंह शुभकरनपुरा टीकमगढ़ के अनुसार तीन गोत्र हैं-वशिष्ठ, अत्रि व शाकृति। इनकी शाखा वाजसनेयी, सूत्र पारसकर, ग्रहसूत्र और वेद यजुर्वेद है। परमारों की कुलदेवी दीप देवी है। देवता महाकाल, उपदेवी सिचियाय माता है। पुरोहित मिश्र, सगरं धनुष, पीतध्वज और बजरंग चिन्ह है। उनका घोड़ा नीला, सिलहट हाथी और क्षिप्रा नदी है। नक्कारा विजयबाण, भैरव कालभैरव तथा ढोल रणभेरी और रत्न नीलम है। परमारों का निवास आबू पर्वत बताया गया है। क्षत्रिय वंश भास्कर के अनुसार परमारों की कुलदेवी सिचियाय माता है, जिसे राजस्थान में गजानन माता कहते हैं। परमारों के गोत्र कहीं गार्ग्य, शौनक व कहीं कौडिल्य मिलते है। परमार क्षत्रिय वंश के प्रसिद्ध 36 कुलों में से एक हैं। ये स्वयं को चार प्रसिद्ध अग्नि वंशियों में से मानते हैं। परमारों के वशिष्ठ के अग्निकुण्ड से उत्पन्न होने की कथा परमारों के प्राचीनतम शिलालेखों और ऐतिहासिक काव्यों में वर्णित है। डा. दशरथ शर्मा लिखते हैं कि ‘हम किसी अन्य वंश को अग्निवंश माने या न माने परन्तु परमारों को अग्निवंशी मानने में कोई आपत्ति नहीं है।’ सिन्धुराज के दरबारी कवि पद्मगुप्त ने उनके अग्निवंशी होना और आबू पर्वत पर वशिष्ठ मुनि के अग्निकुण्ड से उत्पन्न होना लिखा है। बसन्तगढ़, उदयपुर, नागपुर, अथूणा, हरथल, देलवाड़ा, पारनारायण, अंचलेश्वर आदि के परमार शिलालेखों में भी उत्पति के कथन की पुष्टि होती है। प्रश्न उठता है कि अग्निवंश क्या है? इस प्रश्न पर भी विचार, मनन जरूरी है ? इतिहास बताता है कि ब्राह्मणवाद के विरुद्ध जब बौद्ध धर्म का विस्तार हुआ तो क्षत्रिय और वैश्य भी बौद्ध धर्मावलम्बी बन गये। फलतः वैदिक परम्परा नष्ट हो गई। कुमारिल भट्ट (ई.700) व आदि शंकराचार्य के प्रयासों से वैदिक धर्म में पुनः लोगों को दीक्षित किया जाने लगा। जिनमें अनेकों क्षत्रिय भी पुनः दीक्षित किये गये। ब्राह्मणों के मुखिया ऋषियों ने वैदिक धर्म की रक्षा के लिए क्षत्रियों को पुनः वैदिक धर्म में लाने का प्रयास किया, जिसमें उन्हें सफलता मिली और चार क्षत्रिय कुलों को पुनः वैदिक धर्म में दीक्षित करने में सफल हुए। आबू पर्वत पर यज्ञ करके बौद्ध धर्म से वैदिक धर्म में उनका समावेश किया गया। यही अग्निवंश का स्वरूप है। जिसमें परमार वंश अग्नि वंशी कहलाने लगा। छत्रपुर की प्राचीन वंशावली वंश भास्कर का वृतान्त, अबुलफजल का विवरण भी बौद्ध उत्पात के विरुद्ध बौद्ध धर्म से वैदिक धर्म में पुनः लौट आने व यज्ञ की पुष्टि करते हैं। आबू पर्वत पर यह ऐतिहासिक कार्य 6 ठी व 7 वीं सदी में हुआ था। आज भी आबूगिरी पर यज्ञ स्थान मौजूद है। मालवा पर परमारों का ईसा से पूर्व में शासन था। हरनामसिंह चौहान के अनुसार परमार मौर्यवंश की शाखा है। राजस्थान के जाने-माने विद्वान ठाकुर सुरजनसिंह झाझड़ की भी यही मान्यता है। ओझा के अनुसार सम्राट अशोक के बाद मौर्यों की एक शाखा का मालवा पर शासन था। भविष्य पुराण भी मालवा पर परमारों के शासन का उल्लेख करता है। मालवा का प्रसिद्ध राजा गंधर्वसेन था। उसके तीन पुत्रों में से शंख छोटी आयु में ही मर गया। भर्तृहरि जी गद्दी त्याग कर योगी बन गये। तब तीसरा पुत्र विक्रमादित्य गद्दी पर बैठा। भर्तृहरि गोपीचन्द के शिष्य बन गये जिन्होंने श्रृंगार शतक, नीति शतक और वैराग्य शतक लिखे हैं। गन्धर्वसेन का राज्य विस्तार दक्षिणी राजस्थान तक माना जाता है। भर्तृहरि के राज्य छोड़ने के बाद विक्रमादित्य मालवा के शासक बने। राजा विक्रमादित्य बहुत ही शक्तिशाली सम्राट थे। उन्होंने शकों को परास्त कर देश का उद्धार किया। वह एक वीर व गुणवान शासक थे जिनका दरबार नवरत्नों से सुशोभित था। ये थे-कालीदास, अमरसिंह, वराहमिहीर, धन्वतरी वररूचि, शकु, घटस्कर्पर, क्षपणक व बेताल भट्ट। उनके शासन में ज्योतिष विज्ञान प्रगति के उच्च शिखर पर था। वैधशाला का कार्य वराहमिहीर देखते थे। उज्जैन तत्कालीन ग्रीनवीच थी जहां से प्रथम मध्यान्ह की गणना की जाती थी। सम्राट विक्रमादित्य का प्रभुत्व सारा विश्व मानता था। काल की गणना विक्रमी संवत् से की जाती थी। विक्रमादित्य के वंशजों ने 550 ईस्वी तक मालवा पर शासन किया। राजस्थान में ई 400 के करीब राजस्थान के नागवंशों के राज्यों पर परमारों ने अधिकार कर लिया था। इन नाग वंशों के पतन पर आसिया चारण पालपोत ने लिखा है-परमारा रुंधाविधा नाग गया पाताळ। हमै बिचारा आसिया, किणरी झुमै चाळ।।मालवा के परमार- मालव भू-भाग पर परमार वंश का शासन काफी समय तक रहा है। भोज के पूर्वजों में पहला राजा उपेन्द्र का नाम मिलता है जिसे कृष्णराज भी कहते हैं। इसने अपने बाहुबल से एक बड़े स्वतंत्र राज्य की स्थापना की थी। इनके बाद बैरीसिंह मालवा के शासक बने। बैरीसिंह का दूसरा पुत्र अबरसिंह था जिसने डूंगरपुर-बांसवाडा को जीतकर अपना राज्य स्थापित किया। इसी वंश में बैरीसिंह द्वितीय हुआ जिसने गौड़ प्रदेश में बगावत के समय हूणों से मुकाबला किया और विजय प्राप्त की। इसी वंश में जन्में इतिहास प्रसिद्ध राजा भोज विद्यानुरागी व विद्वान राजा थे। मालवा पर मुसलमानों का अधिकार होने के बाद परमारों की एक शाखा अजमेर सीमा में प्रवेश कर गई। पीसांगन से प्राप्त 1475 ईस्वी के लेख से इसका पता चलता है। राघव की राणी के इस लेख में क्रमशः हमीर हरपाल व राघव का नाम आता है। महिपाल मेवाड़ के महाराणा कुम्भा की सेवा में था। आबू के परमारों की राजधानी चन्द्रावती थी जो एक समृद्ध नगरी थी। इस वंश के अधीन सिरोही के आस-पास के इलाके पालनपुर मारवाड़ दांता राज्यों के इलाके थे। आबू के परमारों के शिलालेख से व ताम्रपत्रों से ज्ञात होता है कि इनके मूल पुरुष का नाम धोमराज या धूम्रराज था। संवत 1218 के किराडू से प्राप्त शिलालेख में आरम्भ सिन्धुराज से है। आबू का सिन्धुराज मालवे के सिन्धुराज से अलग था। यह प्रतापी राजा था जो मारवाड़ में हुआ था। सिन्धुराज का पुत्र उत्पलराज किराडू छोड़कर ओसियां नामक गांव में जा बसा जहाँ सचियाय माता उस पर प्रसन्न हुई। उत्पलराज ने ओसियां माता का मंदिर बनवाया। राजस्थान के गुजरात से सटे जिले जालोर में ग्यारहवीं-बारहवीं सदी में परमारों का राज्य था। परमारों ने ही जालोर के प्रसिद्ध किलों का निर्माण कराया था। जालोर के परमार संभवतः आबू के परमारों की ही शाखा थे। एक शिलालेख के अनुसार जालोर में वंश वाक्यतिराज से प्रारम्भ हुआ है। जिसका काल 950 ई. के करीब था। किराडू के परमार वंशीय आज भी यहाँ राजस्थान के बाड़मेर संभाग में स्थित है। परमारों का वहां ग्यारहवीं तथा बारहवीं सदी से राज्य था। ई. 1080 के करीब सोछराज को कृष्णराज द्वितीय का पुत्र था ने यहाँ अपना राज्य स्थापित किया। यह दानी था और गुजरात के शासक सिन्धुराज जयसिंह का सामंत था। इसके पुत्र सोमेश्वर ने वि. 1218 में राजा जज्जक को परास्त परास्त कर जैसलमेर के तनोट और जोधपुर के नोसर किलों पर अधिकार प्राप्त किया। ये अपने को मालवा के परमार राजा उद्यातिराज के पुत्र जगदेव के वंशज मानते है। पंवार (परमार ) राजपूतों का इतिहास काफी स्वर्णिम रहा है, यह युद्धभूमि में वीरता का परिचय देने और अपने कुशल नेतृत्व के लिए जाने जाते है। पंवार मुलतः अग्निवंश है जिसकी उत्पति आबू पर्वत पर महर्षि वशिष्ठ के यज्ञ अग्निकुण्ड से मूल पूरुष परमार से मानी गई है। प्राचीनकाल में विन्ध्यशिखर पर धारानगरी और माण्डु नामक दो नगरों की स्थापना पंवार वंश के राजाओं ने ही की थी। पंवार वंश में एक भोज नामक महाबली और पराक्रमी राजा हुए जिनका यश और कीर्ति आज भी इस कुल को प्रकाशमय बनाए हुए है। पंवार वंश के शासकों के अधीन महेश्वर (माहिष्मति), धारानगरी, माण्डु, उज्जयिनी, चन्द्रभागा, चित्तौड़, आबू, चन्द्रावती, महू, मैदान, पॅवारवती, अमरकोट, विखार, होहदुबी और पाटन आदि नगर रहे थे। मालवा के परमार मुंज ने आबू को जीतकर अपने पुत्र अरण्यराज और चन्दन को क्रमशः आबू और जवालिपुर का शासन सौंपा। इस प्रकार आबू, जालौर, सिरोही, पालनपुर, मारवाड़ और दांता राज्यों के कई गाॅवों पर इनका अधिकार हो गया। आबू पर्वत पर अचलगढ़ का किला और चन्द्रावती नगर परमारों ने ही बसाये थे। आबू के प्रथम राजा सिन्धुराज सं. १००० के लगभग हुए, सिन्धुराज की पांचवी पीढ़ी में धरणीवराह पंवार हुए जिन्होंने अपने भाइयों में अपने राज्य को नौ भागों में बांटकर मारवाड़ नवकोट की स्थापना की। धरणीवराह के पुत्र-महिपाल, बाहड़ व ध्रुवभट्ट थे। महिपाल जो आबू के राजा थे। दूसरे पुत्र बाहड़ के तीन पुत्र सोढा़, सांखला और बाघ थे। सोढा़ से सोढा़ राजपूत व सांखला से सांखला राजपूत हुए। सोढा़ ने सिन्ध प्रान्त में अमरकोट में अपना राज्य स्थापित किया। पंवार वंश में कुल छत्तीस शाखाएं है जिसमें विहल शाखा ही विशेष प्रसिद्ध हुई। इस शाखा के राजाओं ने काफी समय तक अरावली के पश्चिम में स्थित चन्द्रावती नगर पर राज्य किया। इतिहासकार व शिलालेख (आबू पर्वत वि.स.१२८७)के अनुसार इस वंश में प्रथम पुरुष का नाम धूमराज लिखा है। धूमराज के ध्रुवभट्ट और रामदेव। रामदेव के यशोधवल राजा हुए। यशोधवल का पुत्र धारावर्ष आबू के परमारों में बड़ा प्रसिद्ध वीर प्रराक्रमी हुआ। पंवार वंश की चार प्रमुख पाटी है, जिसमें धारानाथ की एक पाटी है। धारानाथ से हरिशचन्द्र तक वंशावली इस प्रकार है- धारानाथ→ भोमरक्ष→ ध्रोमरक्ष→ इन्द्रसेन→ अभयचन्द→ नीलरक्ष→ डाबरक्ष→छत्रनख→ चन्द्रकेशर→ हरिशचन्द्र। हरिशचन्द्र के दो पुत्र हुए- रोहितास व मोटाजी। रोहितास के दो पुत्र हरिश और सरिया जी हुए। हरिश जी के वंशज ही मोठिस पंवार कहलाते है। सरिया के वंशज जहाजपुर, खेराड़ आदि क्षेत्र में रहते है। मोठिस पंवार की प्रमुख शाखायें निम्नलिखित स्थानो पर निवास करती है:- हरिया जी के वंश परम्परा में बालाराव के सात पुत्र हुए, जिनमें खत्रियाम के देवाजी व सातूजी के वंशज बारह भालियों में रहते है। दूसरे पुत्र देवधानकजी के वंशज देवाता रहते है। तीसरे पुत्र गोपालजी के वंशज गाफा में रहते है। चौथे पुत्र रीछाजी के वंशज रीछमाल में रहते है। पांचवे पुत्र पीपहंस के वंशज पीपलबावड़ी में रहते है। छठे पुत्र दोमाजी के वंशज रडाना में रहते है। सातवें पुत्र बूड़ी के वंशज बेड़ा भायलों में रहते है। सातूजी के पांच पुत्र नामटजी, अणदरायजी, ददेपाल, महपाल, मालाजी(मालदेव,मोठिस वंश के कुलदेवता) और एक पुत्री इन्दो बाई (कुण्डा माता,मोठिस पंवारो की कुल देवी) हुई। अणदरायजी के लखनदेव , कोदसी व सारणसी हुए। हरिशचन्द्र के मोटाजी के वंश परम्परा में बहरोवरजी का पुत्र देलजी हआ जिसके वंशज देहलात पंवार कहलाते है। देहलात अधिकतर जवाजा, विहार, रावतमाल, लस्सानी आदि क्षेत्रों में रहते है। देहलात पंवारों की कुलदेवी बिहार माता का मंदिर जवाजा में स्थित है। राजाजी के कूकराजी और कूकराजी के कटाराजी हुए जिनके वंशज कल्लावत/कलात पंवार कहलाते है। पीथाजी के भैराजी, भैराजी के बोहराजी और बोहराजी के धोधिंगजी हुए, जिनके वंशज धोधिंग पंवार कहलाते है। गुणरायजी के वंशज बोया पंवार कहलाते है। वेराजी के वंशज वेरात पंवार कहलाते है। पंवारों की बडे़ रूप में छत्तीस शाखा है- पंवार, सांखला, भरमा, भावल, पेस, पाणिसवल, वहीया, वाहल, छाहड़, मोटसी, हूवंड, सिलोरा, जयपाल, कंठावा, काब, उमर, धांधू, धूरिया, भई, कछोड़िया, काला, कालमुह, खेरा, खूंटा, ढल, ढेसल, जागा, ढूंढा, गेहलड, कलिलिया, कुकड़, पितालिया, डोडा, बारड़। जागा, ढूंढा, गेहलड, कलिलिया, कुकड़, पितालिया, डोडा, बारड़। परमार राजवंश और उसकी शाखाएँ : भाग-1
उत्पति-
मालवा के प्रथम परमार शासक-
लेखक : Devisingh, Mandaw परमार राजवंश और उसकी शाखाएँ : भाग-2
राजस्थान का प्रथम परमार वंश –
अजमेर में प्रवेश-
आबू के परमार-
जालोर के परमार-
किराडू के परमार-
दांता के परमार-
लेखक : Kunwar Devisingh, Mandawaपंवार (परमार) क्षत्रिय राजवंश का इतिहास—
मोठिस पंवार
देहलात पंवार-
कल्लावत पंवार-
धोधिंग पंवार-
बोया पंवार-
वेरात पंवार-
पंवार गोत्र का इतिहास
Developed By
Dr.Kheem Singh Panwar
Retired, Principal, College Education